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जल संचयन : पुरातन परंपरा से आधुनिक समाधान तक की राह

Muzaffar HussainBy Muzaffar HussainMay 9, 20256 Mins Read
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डॉ. मुजफ्फर हुसैन, ​शिक्षाविद्, रांची, झारखंड।

रांची : जब पूरी दुनिया जल संकट की गंभीरता से जूझ रही है, ऐसे समय में जल संचयन प्रणाली (Water Harvesting System) एवं जल भंडारण प्रबंधन (Water Storage Management) का महत्व तेजी से बढ़ा है। भारत में जल संरक्षण की परंपरा कोई नई नहीं है, बल्कि यह सदियों से मानव सभ्यता का हिस्सा रही है। वर्षा जल को एक शुद्ध, बहुमूल्य और सुलभ जल स्रोत माना जाता है, जिसका संरक्षण विशेष रूप से सूखा प्रभावित और मरुस्थलीय क्षेत्रों के लिए अति आवश्यक है। वर्तमान में जिस तरह से जल संकट ने पूरे विश्व को सोचने पर मजबूर कर दिया है, ठीक उसी प्रकार जल का संचयन किया जाना भी नित्यांत आवश्यक है। भारत में यह समस्या पांव पसार चुकी है। वर्षा जल संचयन, जिसे जलाशय निर्माण या जल भंडारण भी कहा जाता है, एक प्राचीन परंपरा है, जो मानव सभ्यता के आरंभ से ही अस्तित्व में रही है। यह प्रणाली न केवल जल संकट के समाधान में सहायक रही है, बल्कि कृषि, सिंचाई और पीने के पानी की उपलब्धता में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। वर्तमान में जल स्त्रोतों के सूखने, सिंचाई साधनों के यांत्रिकीकरण, आंतरिक जल स्तर के कई फीट नीचे उतर जाने, वर्षा की अनिश्चितता, नदियों-नालों की दिन-प्रतिदिन बढ़ती प्रवाहहीनता एवं शुष्कता आदि कई कारणों से भारत में जल संकट विकराल रूप लेता जा रहा है।

प्राचीन काल में जल संचयन प्रणाली

यूनान में जल संचयन तंत्र लगभग 4007 वर्ष पूर्व था। वहीं, प्राचीन भारत में जल संचयन की परंपरा अत्यंत समृद्ध थी। सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जल प्रबंधन की उत्कृष्ट प्रणाली विकसित की गई थी। यहां के जलाशय, जल निकासी प्रणाली और स्नानागार इसकी उत्कृष्टता को दर्शाते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जलाशयों के निर्माण और उनके उपयोग की बात की गई है, जो यह सिद्ध करता है कि प्राचीन काल में जल संचयन को लेकर जागरूकता थी। प्राचीन भारत में जल संचयन के लिए अत्यंत उन्नत तकनीकें मौजूद थीं। विभिन्न आकारों के जलाशयों-चौकोर, त्रिकोण, अर्धचंद्राकार आदि का निर्माण किया जाता था। सिंधु घाटी सभ्यता, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जल प्रबंधन के ठोस प्रमाण मिलते हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी जल संचयन को प्रशासन का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है।

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मध्यकाल में जल संचयन की स्थिति

मध्यकाल में भी जल संचयन की परंपरा जारी रही। दिल्ली के सुल्तानों में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश पहला शसक है, जिसने राजधानी दिल्ली में महरौली के पश्चिम में एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। इसका प्रथम उल्लेख अमीर खुसरो के ग्रंथ केरानुस्सादैन में मिलता है। अमीर खुसरो लिखते हैं-सुल्तान ने दो पहाड़ियों के बीच एक पत्थर का हौज यानी जलाशय बनवाया था, जहां से शहर वालों को पीने का स्वच्छ जल उपलब्ध होता था। इसका जल इतना स्वच्छ था कि बालू के कण भी गिने जा सकते थे। इस हौज को हौज-ए-शम्सी, हौज-ए-सुल्तान या हौज-ए-सुल्तानी के नाम से जाना जाता था। बाबर ने भी बाबरनामा में उल्लेख किया है कि हिंदुस्तान वर्षा पर निर्भर देश है और यहां वर्षा के पानी का संचयन कुएं और तालाबों के माध्यम से किया जाता था। टीकमगढ़ जिला गजेटियर, 1995 इस बात की पुष्टि करता है कि चंदेल शासकों ने अपने राज्य क्षेत्र में वर्षा जल संचयन एवं जल संचयन प्रणाली के लिए टीकमगढ़ जिले में लगभग 925 छोटे-बड़े जलाशयों का निर्माण करवाया, जिसमें से केवल 421 जलाशय ही अस्तित्व में रह गये हैं। मालवा क्षेत्र में  जहाज महल, रानी रूपमती महल, भरहानपुर, असीरगढ़ किला, खूंडी, भंडारा आदि स्थापत्य वर्षा जल संचयन के अनुपम नमूने हैं। मुगल काल में बाबर ने वर्षा जल पर निर्भर कृषि व्यवस्था का उल्लेख करते हुए तालाबों और कुओं के निर्माण को आवश्यक बताया था। यह दिखाता है कि जल संरक्षण हमेशा शासन और समाज की प्राथमिकता रहा है।

वर्तमान समय में जल संकट और जल संचयन की आवश्यकता

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वर्तमान समय में जल संकट एक गंभीर समस्या बन गई है। जलस्त्रोतों का सूखना, जल स्तर का गिरना और वर्षा की अनिश्चितता ने स्थिति को और विकट बना दिया है। ऐसे में जल संचयन की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक महसूस हो रही है। रांची नगर निगम और झारखंड के अन्य नगर निकाय जल संचयन के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन इसके लिए ठोस नीति और जन जागरूकता की आवश्यकता है। सरकारें जल संचयन को लेकर जागरूकता फैलाने के प्रयास कर रही हैं। लेकिन, केवल प्रयासों से नहीं, बल्कि स्थायी नीति और जनसहभागिता से ही जल संकट को रोका जा सकता है। 

जल संचयन के आधुनिक उपाय

वर्तमान में जल संचयन के कई आधुनिक उपाय उपलब्ध हैं। वर्षा जल संचयन प्रणाली के तहत घरों की छतों से वर्षा के पानी को एकत्रित किया जा सकता है और उसे फिल्टर करके उपयोग में लाया जा सकता है। इसके अलावा, तालाबों, झीलों और जलाशयों के पुनर्निर्माण और नदियों के पुनर्जीवन के प्रयास भी किए जा सकते हैं। विश्व वल्लभ के उल्लास-2 के अनुसार-दो पहाड़ियों के बीच या पहाड़ी की घाटी को बांधकर कम व्यय में जलाशय अथवा तालाब का निर्माण किया जा सकता है। वहीं, डॉ ईश्वरी सिंह राणावत अपनी पुस्तक मध्यकालीन जलाशय निर्माण तकनीकी, संधान-7 का उल्लेख करते हुए कहते हैं-जहां आस-पास अधिक समतल भूमि हो तो उसकी जलभराव क्षमता बढ़ सकती है। ऐसे सरोवर अच्छे माने जाते हैं। इसमें जमा होने वाले गाद का उपयोग प्रति वर्ष उन्नत कृषि के लिए किया जा सकता है। साथ ही, इसमें वर्षा जल संचयन एवं संरक्षण कर इसका विभिन्न मद में बेहतर उपयोग संभव है। बड़े पैमाने पर वर्षा जल संचयन और संरक्षण का सबसे बेहतर ऊपाय है नदी पर बांध बनाकर जल को एकत्रित करना और उसे खेती-बागवानी और घरेलू कार्यों में उपयोग करना। साथ ही, घर एवं इसके आस-पास जल संचयन प्रणाली का निर्माण कर वर्षा जल का संचयन करना। अधिकाधिक भूमि को कंक्रिट और सीमेंट से दूर रखना। संभवत: यही कारण है कि झारखंड उच्च न्यायालय ने रांची नगर निगम क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले सभी जलाशयों की खोज शुरू कर दी है। लेकिन यह काफी नहीं है। कागजी कार्रवाई अपनी जगह है, वस्तुत: धरातल पर जल संचयन प्रणाली (Water Harvesting System) एवं जल भंडारण प्रबंधन (Water Storage Management) के लिए कार्य करने की जरूरत है। कंक्रीट निर्माण को सीमित कर अधिक से अ​धिक भूमि को जल अवशोषण योग्य बनाना होगा। तालाबों की चहारदीवारी में सेंधमारी कर वर्षा जल जाने योग्य स्थायी रास्ता का निर्माण करना होगा। अ​धिक से अ​धिक पेड़-पौधे लगाने होंगे। पेड़-पौधों को संर​क्षित करना होगा। फ्लैट कल्चर को नगर निगम क्षेत्र से कोसो दूर ​​​शिफ्ट करना होगा। मॉल, मल्टीप्लेक्स, बड़े-बड़े कॉम​र्शियल कॉम्पलेक्स आदि को भी नगर निगम क्षेत्र से दूर ले जाना होगा। उक्त ऊपायों को अपनाकर ही हम भविष्य के लिए जल बचा सकते हैं अन्यथा आने वाली पीढ़ी बूंद-बूंद को तरसेगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

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