Bokaro News: कृषि प्रधान झारखंड के चास और चंदनकियारी क्षेत्र में इन दिनों सोहराय पर्व की धूम है। यह त्योहार किसानों के लिए फसल पकने की खुशी, पशुधन की सेवा और गोधन के प्रति आभार की अभिव्यक्ति का पर्व है। खासकर कुड़मी बहुल गांवों में पांच दिनों तक उल्लास, गीत और लोक परंपराओं की छटा देखी जा रही है।
सोहराय पर्व (सोहराय परब) श्रद्धा और भावनाओं से जुड़ा है। यह सिर्फ त्यौहार नहीं, बल्कि कृषक समुदाय के जीवन का अहम हिस्सा है। कृषि से आजीविका जुड़ी रीति-रिवाज, हल, बैल, गौधन और नये धान की आराधना इस पर्व की पहचान हैं। छह दिनों की अवधि में बैलों की सेवा की जाती है, उनकी सिंगों पर तेल लगाया जाता है और उनसे कोई काम नहीं लिया जाता। अमावस्या की रात गौ-जागरण की रात होते हुए विशेष सोहराय गीत गाए जाते हैं।
सोहराय गीतों और गोधन की पूजा
उत्सव के दूसरे दिन प्रात: गोरइया पूजा की रीति निभाई जाती है। इसमें गौशाला और हल-जुआंठ की पूजा के बाद, नई धान की बाली से बैलों को सजाया जाता है। महिलाएं बैलों को चुमावन एवं आरती उतारती हैं, साथ ही चावल से बने पीठा का भोग चढ़ाया जाता है।
यह त्योहार आदिवासी समुदायों में भी विशेष रूप से मनाया जाता है। गांव-गांव में सोहराय के गीत गूंजते हैं—’ओहि रे, कहां जाये अहीराय गाय चरावय…’—और पूरा क्षेत्र सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से झूम उठता है।
बरद खूंटा का आयोजन
सोहराय पर्व का प्रमुख आकर्षण ‘बरद खूंटा’ का आयोजन है। इसमें बैलों को खूंटे से बांधकर सोहराय गीतों पर मांदर की थाप के साथ नचाने की परंपरा निभाई जाती है, जो कृषि और पशुधन की गहरी आस्था का प्रतीक है।
लोककथा और पर्व का महत्व
जनमान्यता है कि आदि काल में जब मानव सभ्यता ने अन्न उत्पादन और पशुपालन सीखा, तब से ही माता महामाया गोसाईं राईं (भगवान शिव) की कृपा से सोहराय पर्व मनाने की परंपरा चली आ रही है। दूध और अन्न के प्रति आभार जताने का यह पर्व हर कृषक व आदिवासी परिवार के लिए उत्सव से कम नहीं।
सांस्कृतिक विरासत और परंपरा
आज के आधुनिक युग में भी सोहराय पर्व की भावना चास-चंदनकियारी क्षेत्र के हजारों ग्रामीणों के दिलों में जिंदा है। पारंपरिक गीतों, नृत्य, बैल व गौसेवा से जुड़ी सांस्कृतिक विरासत नई पीढ़ी तक पहुंचाई जा रही है।

