Health News: डिजिटल युग की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में मोबाइल अब लोगों की ज़रूरत से आगे बढ़कर उनकी मानसिक निर्भरता बन चुका है। मनोचिकित्सकों के अनुसार, अब रोजाना ऐसे मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं जिन्हें थोड़ी देर के लिए भी मोबाइल से दूर रहने पर बेचैनी, घबराहट, तनाव या चिड़चिड़ापन होने लगता है। इस मानसिक समस्या को नोमोफोबिया (No-Mobile-Phobia) कहा जाता है, जिसका अर्थ है “मोबाइल फोन के बिना रहने का भय।”
विशेषज्ञ बताते हैं कि कोविड‑19 महामारी के बाद से लोगों का स्क्रीन टाइम कई गुना बढ़ा, जिससे नींद न आना, ध्यान केंद्रित न कर पाना और सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ने जैसी मानसिक परेशानियां बढ़ी हैं। एक औसत व्यक्ति रोज़ाना लगभग 7 घंटे मोबाइल पर बिताता है, और यह आदत धीरे‑धीरे मानसिक लत में बदल रही है।
बच्चों और युवाओं में सबसे ज्यादा असर
विशेषज्ञों के अनुसार, यह समस्या केवल युवाओं या नौकरीपेशा लोगों तक सीमित नहीं है, बल्कि स्कूल‑कॉलेज के छात्र और गृहिणियां भी इसके शिकार हो रहे हैं। कई बच्चों में यह लत इतनी गहरी हो गई है कि जब उनसे फोन छीना जाता है, तो वे गुस्सा या हिंसक व्यवहार करते हैं। मोबाइल की ये आदत मानसिक और शारीरिक दोनों स्वास्थ्य पर असर डाल रही है।
मनोचिकित्सकों के अनुसार, लगातार फोन देखने से सिरदर्द, आंखों में जलन, नींद की कमी, पेट दर्द, और दिल की धड़कन बढ़ने जैसी समस्याएं आम होती जा रही हैं। बच्चे अब आउटडोर खेल और शारीरिक गतिविधियों से दूर होकर सोशल मीडिया या ऑनलाइन गेम्स में उलझे रहते हैं, जिससे उनका सामाजिक विकास बाधित हो रहा है।
विशेषज्ञों की सलाह
हालांकि नोमोफोबिया को अभी औपचारिक रूप से मानसिक बीमारी की श्रेणी में नहीं रखा गया है, लेकिन इसके लगातार बढ़ते मामले यह संकेत दे रहे हैं कि डिजिटल निर्भरता अब मानसिक स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बन चुकी है।
विशेषज्ञों की सलाह है कि मोबाइल का उपयोग आवश्यकता तक सीमित रखें, सोने से पहले फोन न चलाएं, नोटिफिकेशन बंद रखें ताकि लगातार दिमाग को अलर्ट न मिले। दिन का कुछ हिस्सा बिना मोबाइल के बिताने की आदत डालें—परिवार से बात करें, टहलें या किसी हॉबी में समय दें। बच्चों को मोबाइल के बजाय आउटडोर गेम्स खेलने के लिए प्रेरित करें।

